Abstract

इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक में भारत में महिषासुर आंदोलन द्विज संस्कृति के लिए चुनौती बनकर उभरा। इसके माध्यम से आदिवासियों, पिछड़ों और दलितों के एक बड़े हिस्से ने अपनी सांस्कृतिक दावेदारी पेश की। लेकिन यह आंदोलन क्या है, इसकी जड़ें समाज में कहां तक फैली हैं, बहुजनों की सांस्कृतिक परंपरा में इसका क्या स्थान है, मौजूदा लोक-जीवन में महिषासुर की उपस्थिति किन-किन रूपों में है, इसके पुरातात्विक साक्ष्य क्या हैं? गीतों-कविताओं व नाटकों में महिषासुर किस रूप में याद किए जा रहे हैं और अकादमिक-बौद्धिक वर्ग को इस आंदोलन ने किस रूप में प्रभावित किया है, उनकी प्रतिक्रियाएं क्या हैं? आदि प्रश्नों पर विमर्श हमें एक ऐसी बौद्धिक यात्रा की ओर ले जाने में सक्षम हैं, जिससे हममें अधिकांश अभी तक अपरिचित रहे हैं। क्या महिषासुर दक्षिण एशिया के अनार्यों के पूर्वज थे, जो बाद में एक मिथकीय चरित्र बन कर बहुजन संस्कृति के प्रतीक पुरुष बन गए? क्या यह बहुत बाद की परिघटना है, जब माकण्डेय पुराण, दुर्गासप्तशती जैसे ग्रंथ रच कर, एक कपोल-कल्पित देवी के हाथों महिषासुर की हत्या की कहानी गढ़ी गई? इस आंदोलन की सैद्धांतिकी क्या है? प्रमोद रंजन द्वारा संपादित किताब “महिषासुर: मिथक व परंपराएं” में लेखकों ने उपरोक्त प्रश्नों पर विचार किया है तथा विलुप्ति के कगार पर खड़े असुर समुदाय का विस्तृत नृवंशशास्त्रीय अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में समकालीन भारतीय साहित्य में महिषासुर पर लिखी गई कविताओं व गीतों का प्रतिनिधि संकलन भी है तथा महिषासुर की बहुजन कथा पर आधारित एक नाटक भी प्रकाशित है। समाज-विज्ञान व सांस्कृतिक विमर्श के अध्येताओं, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, साहित्य प्रेमियों के लिए यह एक आवश्यक पुस्तक है

    Similar works